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IAAN Express E-Paper June 2021
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ARTICLE :
No Means No... चाहे वो बीबी ही क्यों न हो
'No. No, Your Honour... ना सिर्फ एक शब्द नहीं, अपने आप में एक पूरा वाक्य है। इसे किसी तर्क, स्पष्टीकरण, एक्सप्लेनेशन या व्याख्या की जरूरत नहीं होती। ना का मतलब ना ही होता है। उसे बोलने वाली लड़की कोई परिचित हो, फ्रेंड हो, गर्लफ्रेंड हो, कोई सेक्स वर्कर हो, या आपकी अपनी बीबी ही क्यों न हो, नो मिन्स नो... And When Someone Says So; Stop...'
ये शब्द याद हैं आपको। आपने पिंक फ़िल्म देखी हो तो शायद याद होगा। एक बूढ़े वकील द्वारा तीन लड़कियों के सम्मान-स्वाभिमान-स्वतंत्रता की सार्थकता को जीवंत बनाने वाली इस जिरह को पहली बार देखकर आंखों में आंसू आ गए थे। पूरी फिल्म में केवल कोर्ट रूम की वो जिरह मैंने सैकड़ों बार देखी है। आज सुबह-सुबह ये फिर से याद आ गया। अखबार खोला, तो पहले पन्ने पर ही खबर थी, 'केंद्र ने कहा, वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध बनाना ठीक नहीं।' पहली बार में लगा, कुछ गलत पढ़ लिया, केंद्र सरकार और वो भी महिलाहित के मुद्दों पर मुखर रहने वाली सरकार ऐसा कैसे कह सकती है। लेकिन पूरी खबर पढ़ी, तो यकीन हो गया कि ये बराबरी की बात करने वाली लोकतंत्रताकम शासन पद्धति की आवाज़ नहीं, बल्कि उस पुरुषवादी मानसिकता की सामंती सोच है, जो महिला में 'मैं' वाले अहसास को देखने की आदी नहीं और जो चाहती है कि महिला की पहचान मर्द के नाम की मोहताज बनी रहे। उसकी बीबी उसके लिए बस खिदमत की खादिम हो और पति के हुक्म की तमिल करना ही पत्नियों का फर्ज बना रहे। क्या सितम है कि आज़ादी के 7 दशक बाद जब हम स्वतंत्रता की नई परिभाषा गढ़ रहे हैं, तब सरकार का वकील न्यायालय में खड़े होकर कहता है कि 'वैवाहिक दुष्कर्म के मामले में महिलाओं को अधिकार दे देने से इसका बेजा इस्तेमाल होगा।' काश... काश कोर्ट रुम में पिंक फ़िल्म के बुजुर्ग दीपक सहगल जैसा कोई वकील होता, जो उस सरकारी भोंपू की आंख में आंख डालकर कह सकता कि आज के दौर में जब अधिकार और हक विमर्श का विषय बन रहा है उस समय खुद पर होने वाले जुल्म के खिलाफ आधी आबादी के विरोध को कोई बेजा नहीं बता सकता, चाहे वो सरकार ही क्यों न हो। काश पिंक फ़िल्म का न्याय आज की वास्तविकता बन पाता . . . . . .
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